जिन आदि शंकराचार्य जी को अद्वैत का प्रवर्तक बताया जाता है और उन पर अद्वैत का ठप्पा सा जड़ दिया है, उनका 7 श्लोकों का गीता माहात्म्य पढिए।
देखिए पहले
श्लोक की दूसरी पंक्ति :- विष्णोः पादं
अवाप्नोति भय शोकादि वर्जितः ।। अब बताइए अद्वैत
मे ये विष्णु कौन हैं ? अगर विष्णुपाद का सामान्य अर्थ भी करें तो विष्णु चरण। अब बताइए
निराकार के चरण कैसे आ गए? वे तो सदा से साकार
है, और अद्वैत साकार को नकारते हैं। आगे देखिए श्लोक 7 पहली व दूसरी
पंक्ति:- एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् । एको देवो देवकीपुत्र एव ।। अब ये देवकी पुत्र कौन हुए ? सब जानते हैं, पर बताते नहीं । श्रीमद्भगवद गीता भी उन्ही शंकराचार्य की देन है। महाभारत के भीष्म पर्व से अलग निकाल
कर 18 अध्यायों में, वे भी उन्होंने ही किए, हमारे सामने रखी ।
फिर उन्होंने "भज
गोविंदम" दिया। अद्वैत वाले बड़ी चतुराई से इस सबको छुपा जाते हैं । भज
शब्द का अर्थ ही बदल देते हैं- ध्यान । आदि गुरु ने 4 बड़े मठों कि स्थापना चार बड़े धाम मंदिरों में की। तो मंदिर
ही क्यों ? और आज उन्ही साकार के मंदिरों मे
बैठ कर तथाकथित शंकराचार्य निराकार निर्गुण का गुणगान करते फिरते हैं! शंकराचार्य ने 18 मुख्य शक्ति पीठों का माहात्म्य,जो सती (पार्वती) हैं,शक्ति स्त्रोतम में किया है।
वो सती कौन सी निराकार है शस्त्रों में?
आदिगुरु के इन भाष्य के प्रकाश में बाड़े वाले बाबाओं के शब्दजाल की माया
को समझ उससे दूर रहने
का प्रयास करें !
दुख तो इस बात का है कि द्वैत
वाले भी - चाहे इस्कॉन हो या कोई और - स्पष्ट रूप से इस बात का खुलकर प्रचार ही नहीं करते, कि आखिरकार उहोने साकार सगुण को स्वीकार किया ही
है। जबकि उनके लिखे इसी माहात्म्य का
गुणगान करते है। और ! उन आदिगुर पर एक गलत लेबल
चिपका दिया गया।
स्व घोषित बड़े बड़े वेद उपनिषद के
ज्ञाता कहे जाने वाले सब अपने अपने बाड़े को बड़ा दिखने
के लिए सीधी सी व्याख्या को तोड़ मरोड़ कर बताते हैं और सनातन का सत्यानाश कर रखा
है। स्वयं को पढ़ा लिखा कहने वाले भी सवाल नहीं करते कैसी विडंबना है? दूसरी बात विराट अनंत
ब्रह्मांडों की
उत्पत्ति, पालन व संचालन करने वाला कौन और
कैसे निराकार हो सकता है। आर्य समाजी इस बात को स्वीकारते हैं कि कोई बनाने वाला
है और इसे साबित करने के लिए विभिन्न सांसारिक उपकरणों व उनके बनाने वाले का
दृष्टांत देते हैं, तो क्या इन उपकरणों को बनाने वाला निराकार है? कोरा दंभ ! इसीलिए अचिंत्य भेद
अभेद का सिद्धांत दिया गया है भेद भी है और अभेद भी। quantity में भी एवं quality में भी। शाश्वत की तुलना उसके रचे अशाश्वत से नहीं कर
सकते। और गीता मे उन्होंने कह ही दिया कि मैं ही भगवान हूँ, बीजप्रद पिता हूँ, द्विभुज(कौन सा निराकार ) रूप मे अर्जुन जैसे विरलों को दर्शन देता हूँ। विराट रूप
के दर्शन कराए। निराकार का कौन सा विराट और रूप हो सकता है।
पर सनातन मे एसी कई विडंबनायें हैं अपने अपने बाड़े
को बड़ा सिद्ध करने की होड़ के दंभ में । ये सब आम जनता को मोक्ष दिलाने के झांसे में स्वयं
ही इस बाड़े में उलझ कर रहा गए हैं। परंतु इससे सनातन की गरिमा पर कोई आंच
नहीं आने वाली।